कागजों में बना आंगनबाड़ी भवन; जमीन पर अस्तबल, PM जनमन आदिवासी योजना की सच्चाई उजागर, बच्चों का बचपन फाइलों में हुआ कैद

बच्चों के भविष्य पर ‘प्रशासनिक ठहराव’ का प्रहार, आंगनवाड़ी भवन बना सपना

(छत्तीसगढ़ प्रयाग न्यूज) किशन सिन्हा :– गरियाबंद जिले के छुरा विकासखंड में प्रधानमंत्री जनमन आदिवासी योजना के तहत सबसे पिछड़े वर्ग के बच्चों के लिए प्रस्तावित आंगनबाड़ी भवन का लेआउट कागजों में तैयार हो चुका है, लेकिन जमीन पर निर्माण की शुरुआत आज तक नहीं हो सकी। स्थिति यह है कि जो आंगनबाड़ी सुविधा बच्चों के लिए बनाई जानी थी, वह अब अस्तबल जैसे जर्जर ढांचे में तब्दील हो चुकी है। वहीं आश्रित ग्राम कोकडाछेड़ा (हिराबत्तर) के बच्चों का बचपन सरकारी स्कूल की दीवारों के सहारे पल रहे हैं।

बच्चों के भविष्य और शिक्षा की गुणवत्ता बना चुनौती

स्थानीय अभिभावकों और शिक्षकों का कहना है कि स्कूल के दो कमरों में आधे हिस्से पर आंगनबाड़ी चलाई जा रही है और आधे में स्कूल की कक्षाएं। एक शिक्षक के अनुसार, “एक ही कमरे में पांच क्लास चलाना बच्चों के भविष्य और शिक्षा की गुणवत्ता दोनों के लिए चुनौती बन चुका है।” ग्रामीणों का आरोप है कि प्रस्तावित भवन केवल फाइलों में दर्ज है। जमीन पर न नींव दिखाई देती है, न एक भी ईंट।

शांति ट्रेडर्स को मिला निर्माण कार्य का टेंडर

सेक्टर पर्यवेक्षक कौशल वर्मा ने स्वीकार किया कि निर्माण प्रस्ताव उच्च अधिकारियों को भेजा गया था और दस्तावेजी रूप से पारित भी दिखता है, मगर कार्य शुरू नहीं हुआ। वहीं जिला गरियाबंद के सहायक आयुक्त (निर्माण शाखा) ने बताया कि निर्माण कार्य का टेंडर शांति ट्रेडर्स नामक संस्था को दिया गया है, किंतु किसी भी प्रकार की प्रगति रिपोर्ट आज तक प्रस्तुत नहीं की गई।

प्रशासनिक स्तर पर समन्वय की कमी

विभागीय संचार में यह अस्पष्टता और ठहराव साफ दिखता है। योजना कागजों में स्वीकृत है, लेकिन वास्तविक कार्यान्वयन से उसकी दूरी बेहद गहरी बनी हुई है। प्रशासनिक स्तर पर समन्वय की कमी और निर्माण एजेंसी की निष्क्रियता इस अंतर को और चौड़ा कर रही है, जिससे परियोजना केवल दस्तावेजों तक सीमित होकर रह गई है।

क्या फाइलों की इमारतें हकीकत में बदलेगी?

यह मामला केवल एक आंगनबाड़ी भवन की देरी नहीं, बल्कि योजनाओं के धरातल पर उतरने में व्याप्त अव्यवस्था का आईना है। जब तक विभागीय निगरानी, ठेकेदारों की जवाबदेही और प्रशासनिक पारदर्शिता पर सख्ती नहीं होगी, तब तक कोकडाछेड़ा जैसे पिछड़े गांवों के बच्चों का भविष्य कागजों की कहानियों में ही उलझा रहेगा। सवाल वही है कि फाइलों की इमारतें हकीकत में कब बदलेंगी?

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